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कर्त्तव्य का पाठ [प्रेरक प्रसंग ]

*कर्त्तव्य का पाठ [प्रेरक प्रसंग ]*

Hindi Short Motivational Story About Maharshi Jaajali

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तपस्वी जाजलि श्रद्धापूर्वक वानप्रस्थ धर्म का पालन करने के बाद खडे़ होकर कठोर तपस्या करने लगे।उन्हें गतिहीन देखकर पक्षियों ने उन्हें कोई वृक्ष समझ लिया और उनकी जटाओं में घोंसले बनाकर अंडे दे दिए।

अंडे बढे़ और फूटे, उनसे बच्चे निकले। बच्चे बड़े हुए और उड़ने भी लगे। एक बार जब बच्चे उड़कर पूरे एक महीने तक अपने घोंसले में नहीं लौटे, तब जाजलि हिले।

वह स्वयं अपनी तपस्या पर आश्चर्य करने लगे और अपने को सिद्ध समझने लगे। उसी समय आकाशवाणी हुई, 'जाजलि, गर्व मत करो। काशी में रहने वाले व्यापारी तुलाधार के समान तुम धार्मिक नहीं हो।'

आकाशवाणी सुनकर जाजलि को बड़ा आश्चर्य हुआ। वह उसी समय काशी चल पड़े। उन्होंने देखा कि तुलाधार तो एक अत्यंत साधारण दुकानदार हैं। वह अपनी दुकान पर बैठकर ग्राहकों को तौल-तौलकर सौदा दे रहे थे।

जाजलि को तब और भी आश्चर्य हुआ जब तुलाधार ने उन्हें उठकर प्रणाम किया, उनकी तपस्या, उनके गर्व तथा आकाशवाणी की बात भी बता दी। जाजलि ने पूछा, 'तुम्हें यह सब कैसे मालूम?' तुलाधार ने विनम्रतापूर्वक कहा, 'सब प्रभु की कृपा है। मैं अपने कर्त्तव्य का सावधानी से पालन करता हूं। न मद्य बेचता हूं, न और कोई निंदित पदार्थ। अपने ग्राहकों को मैं तौल में कभी ठगता नहीं। ग्राहक बूढ़ा हो या बच्चा, वह भाव जानता हो या न जानता हो, मैं उसे उचित मूल्य पर उचित वस्तु ही देता हूं। किसी पदार्थ में दूसरा कोई दूषित पदार्थ नहीं मिलाता। ग्राहक की कठिनाई का लाभ उठाकर मैं अनुचित लाभ भी उससे नहीं लेता हूं। ग्राहक की सेवा करना मेरा कर्त्तव्य है, यह बात मैं सदा स्मरण रखता हूं। मैं राग-द्वेष और लोभ से दूर रहता हूं। यथाशक्ति दान करता हूं और अतिथियों की सेवा करता हूं। हिंसारहित कर्म ही मुझे प्रिय है। कामना का त्याग करके संतोषपूर्वक जीता हूं।'

जाजलि समझ गए कि आखिर क्यों उन्हें तुलाधार के पास भेजा गया। उन्होंने तुलाधार की बातों को अपने जीवन में उतारने का संकल्प किया।
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सकारात्मक सोच का महत्त्व

प्रेरक प्रसंग

 
सकारात्मक सोच का महत्त्व

एक व्यक्ति ऑटो से रेलवे स्टेशन जा रहा था।
ऑटो वाला बड़े आराम से ऑटो चला रहा था।
एक कार अचानक ही पार्किंग से निकलकर रोड पर आ गई।
ऑटो ड्राइवर ने तेजी से ब्रेक लगाया और कार, ऑटो से टकराते-टकराते बची।
कार चला रहा आदमी गुस्से में ऑटोवाले को ही भला-बुरा कहने लगा जबकि गलती उसकी थी।
ऑटो चालक एक सत्संगी (सकारात्मक विचार सुनने-सुनाने वाला) था।
उसने कार वाले की बातों पर गुस्सा नहीं किया और क्षमा माँगते हुए आगे बढ़ गया।
ऑटो में बैठे व्यक्ति को कार वाले की हरकत पर गुस्सा आ रहा था और उसने ऑटो वाले से पूछा... तुमने उस कार वाले को बिना कुछ कहे ऐसे ही क्यों जाने दिया।
उसने तुम्हें भला-बुरा कहा जबकि गलती तो उसकी थी।
हमारी किस्मत अच्छी है.... ,
नहीं तो उसकी वजह से हम अभी अस्पताल में होते।
ऑटो वाले ने बहोत मार्मिक जवाब दिया......
"साहब,. *बहुत से लोग गार्बेज ट्रक (कूड़े का ट्रक) की तरह होते हैं। वे बहुत सारा कूड़ा अपने दिमाग में भरे हुए चलते हैं।......*
जिन चीजों की जीवन में कोई ज़रूरत नहीं होती उनको मेहनत करके जोड़ते रहते हैं जैसे.... क्रोध, घृणा, चिंता, निराशा आदि।
जब उनके दिमाग में इनका कूड़ा बहुत अधिक हो जाता है.... तो, वे *अपना बोझ हल्का करने के लिए इसे दूसरों पर फेंकने का मौका ढूँढ़ने लगते हैं।*
इसलिए .....
मैं ऐसे लोगों से दूरी बनाए रखता हूँ और उन्हें दूर से ही मुस्कराकर अलविदा कह देता हूँ।
क्योंकि ......
अगर उन जैसे लोगों द्वारा गिराया हुआ कूड़ा मैंने स्वीकार कर लिया.....
तो,
मैं भी कूड़े का ट्रक बन जाऊँगा और अपने साथ-साथ आसपास के लोगों पर भी वह कूड़ा गिराता रहूँगा।
मैं सोचता हूँ जिंदगी बहुत ख़ूबसूरत है इसलिए......
जो हमसे अच्छा व्यवहार करते हैं उन्हें धन्यवाद कहो और जो हमसे अच्छा व्यवहार नहीं करते उन्हें मुस्कुराकर भूला दो।
*हमें यह याद रखना चाहिए* कि सभी मानसिक रोगी केवल अस्पताल में ही नहीं रहते हैं.......
*कुछ हमारे आसपास खुले में भी घूमते रहते हैं!*
*प्रकृति के नियम:*
*यदि खेत में बीज न डाले जाएँ..... तो ,कुदरत उसे घास-फूस से भर देती है।*
उसी तरह से......
यदि दिमाग में सकारात्मक विचार न भरें जाएँ तो नकारात्मक विचार अपनी जगह बना ही लेते हैं।
*दूसरा नियम है कि* जिसके पास जो होता है वह वही बाँटता है।.......
“सुखी” सुख बाँटता है,
“दुखी” दुख बाँटता है,
“ज्ञानी” ज्ञान बाँटता है,"
"भ्रमित भ्रम बाँटता है"
और....
“भयभीत” भय बाँटता है।
जो खुद डरा हुआ है वह,
औरों को डराता है,
दबा हुआ दबाता है,
चमका हुआ चमकाता है।

इसलिए.... नकारात्मक लोगों से दूरी बनाकर खुद को नकारात्मकता से दूर रखें।
और जीवन में सकारात्मकता अपनाएं।

एक बोध कथा -"चार बात"

एक बोध कथा -"चार बात"

एक राजा के विशाल महल में एक सुंदर वाटिका थी, जिसमें अंगूरों की एक बेल लगी थी। वहां रोज एक चिड़िया आती और मीठे अंगूर चुन-चुनकर खा जाती और अधपके और खट्टे अंगूरों को नीचे गिरा देती।

माली ने चिड़िया को पकड़ने की बहुत कोशिश की पर वह हाथ नहीं आईहताश होकर एक दिन माली ने राजा को यह बात बताईयह सुनकर भानुप्रताप को आश्चर्य हुआ। उसने चिड़िया को सबक सिखाने की ठान ली और वाटिका में छिपकर बैठ गया।

जब चिड़िया अंगूर खाने आई तो राजा ने तेजी दिखाते हुए उसे पकड़ लिया। जब राजा चिड़िया को मारने लगा, तो चिड़िया ने कहा, 'हे राजन, मुझे मत मारो। मैं आपको ज्ञान की 4 महत्वपूर्ण बातें बताऊंगी।'

राजा ने कहा, 'जल्दी बता।'

चिड़िया बोली, 'हे राजन, सबसे पहले, तो हाथ में आए शत्रु को कभी मत छोड़ो।'

राजा ने कहा, 'दूसरी बात बता।'

चिड़िया ने कहा, 'असंभव बात पर भूलकर भी विश्वास मत करो और तीसरी बात यह है कि बीती बातों पर कभी पश्चाताप मत करो।'

राजा ने कहा, 'अब चौथी बात भी जल्दी बता दो।'

इस पर चिड़िया बोली, 'चौथी बात बड़ी गूढ़ और रहस्यमयी है। मुझे जरा ढीला छोड़ दें क्योंकि मेरा दम घुट रहा है। कुछ सांस लेकर ही बता सकूंगी।'

चिड़िया की बात सुन जैसे ही राजा ने अपना हाथ ढीला किया, चिड़िया उड़कर एक डाल पर बैठ गई और बोली, 'मेरे पेट में दो हीरे हैं।'

यह सुनकर राजा पश्चाताप में डूब गया। राजा की हालत देख चिड़िया बोली, *'हे राजन, ज्ञान की बात सुनने और पढ़ने से कुछ लाभ नहीं होता, उस पर अमल करने से होता है। आपने मेरी बात नहीं मानी।

मैं आपकी शत्रु थी, फिर भी आपने पकड़कर मुझे छोड़ दिया।

मैंने यह असंभव बात कही कि मेरे पेट में दो हीरे हैं फिर भी आपने उस पर भरोसा कर लिया।

आपके हाथ में वे काल्पनिक हीरे नहीं आए, तो आप पछताने लगे।

उपदेशों को जीवन में उतारे बगैर उनका कोई मोल नहीं।

गूरू के पास अज्ञानी बनकर जाना चाहिए!!!

ज्ञान हमेशा झुककर हासिल किया जा सकता है।
एक शिष्य गुरू के पास आया। शिष्य पंडित था और मशहूर भी, गुरू से भी ज्यादा। सारे शास्त्र उसे कंठस्थ थे। समस्या यह थी कि सभी शास्त्र कंठस्थ होने के बाद भी वह सत्य की खोज नहीं कर सका था। ऐसे में जीवन के अंतिम क्षणों में उसने गुरू की तलाश शुरू की। संयोग से गुरू मिल गएवह उनकी शरण में पहुंचा।
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गुरू ने पंडित की तरफ देखा और कहा, 'तुम लिख लाओ कि तुम क्या-क्या जानते हो। तुम जो जानते हो, फिर उसकी क्या बात करनी है। तुम जो नहीं जानते हो, वह तुम्हें बता दूंगा।' शिष्य को वापस आने में सालभर लग गया, क्योंकि उसे तो बहुत शास्त्र याद थे। वह सब लिखता ही रहा, लिखता ही रहा। कई हजार पृष्ठ भर गए। पोथी लेकर आया। गुरू ने फिर कहा, 'यह बहुत ज्यादा है। मैं बूढ़ा हो गया। मेरी मृत्यु करीब है। इतना न पढ़ सकूंगा। तुम इसे संक्षिप्त कर लाओ, सार लिख लाओ।'

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पंडित फिर चला गया। तीन महीने लग गएअब केवल सौ पृष्ठ थे। गुरू ने कहा, मैं 'यह भी ज्यादा है। इसे और संक्षिप्त कर लाओ।' कुछ समय बाद शिष्य लौटा। एक ही पन्ने पर सार-सूत्र लिख लाया था, लेकिन गुरू बिल्कुल मरने के करीब थे। कहा, 'तुम्हारे लिए ही रूका हूं। तुम्हें समझ कब आएगी? और संक्षिप्त कर लाओ।' शिष्य को होश आया। भागा दूसरे कमरे से एक खाली कागज ले आया। गुरू के हाथ में खाली कागज दिया। गुरू ने कहा, 'अब तुम शिष्य हुए। मुझसे तुम्हारा संबंध बना रहेगा।' कोरा कागज लाने का अर्थ हुआ, मुझे कुछ भी पता नहीं, मैं अज्ञानी हूं। जो ऐसे भाव रख सके गुरू के पास, वही शिष्य है।

निष्कर्ष: -

गुरू तो ज्ञान-प्राप्ति का प्रमुख स्त्रोत है, उसे अज्ञानी बनकर ही हासिल किया जा सकता है। पंडित बनने से गुरू नहीं मिलते।।
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जैसा बोओगे वैसा पाओगे

एक बार एक गाँव में कुछ मित्र मण्डली बनाकर बैठे थे । वह लोग ईश्वर के अन्याय पर चर्चा कर रहे थे । एक व्यक्ति बोला –“ भगवान कितना निर्दय है, उसे तनिक भी दया नहीं आती, कितने ही लोग भूकंप में मर जाते है, कितने ही बेघर हो जाते है, कितने ही अपंग हो जाते है, बिचारे जिंदगी भर जीवन का भार ढोते रहते है ।” 

इतने में दूसरा व्यक्ति बोला – “ ईश्वर बड़ा ही पक्षपाती है, दुष्टों को अमीर बना देता है और सज्जनों को गरीब । ये भगवान मेरी तो समझ से बाहर है ।”

इतने में तीसरा व्यक्ति बोला – “ भाई ! इस संसार में ईश्वर नाम की कोई चीज़ नहीं, सब बकवास की बाते है ।”

इतने में चोथा बोला – “ हाँ ! सही कहते हो भाई ! किन्तु हमारे शास्त्र तो ईश्वर को बताते है, मुझे तो लगता है ईश्वर होगा भी तो किसी तानाशाह की तरह पड़ा होगा कहीं वैकुण्ठ में ।

इसी तरह लोगों की बातचीत चल रही थी कि पास से ही एक दार्शनिक गुजर रहे थे । उनके कान पर लोगो के ये शब्द पड़े । वह लोगों के पास आये और बोले – “ भाइयों ! चलो मेरे साथ आप सभी को एक अजूबा दिखाना है । सभी आश्चर्य से दार्शनिक के साथ चल दिए ।

दार्शनिक महोदय सभी को खेतों की ओर ले गये और दो खेतों के बीचोंबीच जाकर खड़े हो गये । एक तरफ थी फूलों की खेती और दूसरी तरफ थी तम्बाकू की खेती ।

दार्शनिक महोदय बोले – धरती भी कैसा अन्याय करती है । एक फसल से खुशबू आती है और एक से बदबू ।

उनके पास खड़े लोग बोले – “ नहीं नहीं श्री मान ये दोष धरती का नहीं, उसमें बोये गये बीज का है । जहाँ फूलों के बीज बोये गये वहाँ से खुशबू आती है और जहाँ तम्बाकू के बीज बोये गये वहाँ से बदबू आती है । इसमें धरती को दोष देना उचित नहीं ।”
दार्शनिक महोदय बड़े विनम्र भाव से बोले – “

जी आपका कहना सही है, धरती को दोष देना मेरी मुर्खता है, किन्तु मुझे यह बताइए कि ईश्वर के संसार रूपी खेत में ईश्वर को दोषी ठहराना कहाँ की समझदारी है । जो आप ईश्वर को अन्यायी और पक्षपाती कह रहे थे ।

इन्सान जैसे कर्मों के बीज अपने जीवन मैं बोयेगा, उसको वैसा ही फल प्राप्त होगा, वैसी ही उसकी फसल होगी, इसके लिए ईश्वर को दोष देना कहाँ तक उचित है ।”

सभी महानुभावों को बात समझ आ गई थी । ईश्वर हमेशा सबके साथ न्याय ही करता है ।

जो लोग ईश्वर पर दोषारोपण करते है वह या तो खुद की गलती स्वीकार नहीं करना चाहते है या फिर अपने अज्ञान का परिचय दे रहे है । जरुरी नहीं कि जिसे आप अच्छा कहते है वही आपके लिए अच्छा हो । कभी – कभी सामायिक दर्द और नुकसान हमारे भविष्य के लिए लाभदायक सिद्ध हो सकते है । जैसे जब किसान बुवाई करता है तो वह नुकसान में रहता है क्योंकि मेहनत भी करता है और महंगे बीज मिट्टी में मिला देता है किन्तु फिर भी धैर्य पूर्वक परिश्रम करते रहने पर जो पारितोषिक उसे प्राप्त होता है । उससे वह और उसका पूरा परिवार खुशियों से भर उठता है

कबीरदास जी के दोहे (भाग-4)

(51)
समझाये समझे नहीं, पर के साथ बिकाय । 
मैं खींचत हूँ आपके, तू चला जमपुर जाए ॥ 


(52)
हंसा मोती विण्न्या, कुञ्च्न थार भराय । 
जो जन मार्ग न जाने, सो तिस कहा कराय ॥

(53)
कहना सो कह दिया, अब कुछ कहा न जाय । 
एक रहा दूजा गया, दरिया लहर समाय ॥ 53 ॥ 

(54)
वस्तु है ग्राहक नहीं, वस्तु सागर अनमोल । 
बिना करम का मानव, फिरैं डांवाडोल ॥ 
(55)
कली खोटा जग आंधरा, शब्द न माने कोय । 
चाहे कहँ सत आइना, जो जग बैरी होय ॥
(56)
कामी, क्रोधी, लालची, इनसे भक्ति न होय । 
भक्ति करे कोइ सूरमा, जाति वरन कुल खोय ॥
(57)
जागन में सोवन करे, साधन में लौ लाय । 
सूरत डोर लागी रहे, तार टूट नाहिं जाय ॥
(58)
साधु ऐसा चहिए ,जैसा सूप सुभाय । 
सार-सार को गहि रहे, थोथ देइ उड़ाय ॥
(59)
लगी लग्न छूटे नाहिं, जीभ चोंच जरि जाय । 
मीठा कहा अंगार में, जाहि चकोर चबाय ॥
(60)
भक्ति गेंद चौगान की, भावे कोई ले जाय । 
कह कबीर कुछ भेद नाहिं, कहां रंक कहां राय ॥
(61)
घट का परदा खोलकर, सन्मुख दे दीदार । 
बाल सनेही सांइयाँ, आवा अन्त का यार ॥ 

(62)
अन्तर्यामी एक तुम, आत्मा के आधार । 
जो तुम छोड़ो हाथ तो, कौन उतारे पार ॥ 62 ॥ 

(63)
मैं अपराधी जन्म का, नख-सिख भरा विकार । 
तुम दाता दु:ख भंजना, मेरी करो सम्हार ॥ 

(64)
प्रेम न बड़ी ऊपजै, प्रेम न हाट बिकाय । 
राजा-प्रजा जोहि रुचें, शीश देई ले जाय ॥ 

(65)
प्रेम प्याला जो पिये, शीश दक्षिणा देय । 
लोभी शीश न दे सके, नाम प्रेम का लेय ॥ 

(66)
सुमिरन में मन लाइए, जैसे नाद कुरंग । 
कहैं कबीर बिसरे नहीं, प्रान तजे तेहि संग ॥ 

(67)
सुमरित सुरत जगाय कर, मुख के कछु न बोल । 
बाहर का पट बन्द कर, अन्दर का पट खोल ॥

(68)
छीर रूप सतनाम है, नीर रूप व्यवहार । 
हंस रूप कोई साधु है, सत का छाननहार ॥

(69)
ज्यों तिल मांही तेल है, ज्यों चकमक में आग । 
तेरा सांई तुझमें, बस जाग सके तो जाग ॥ 

(70)
जा करण जग ढ़ूँढ़िया, सो तो घट ही मांहि । 
परदा दिया भरम का, ताते सूझे नाहिं ॥ 70 ॥ 

कबीरदास जी के दोहे (भाग-3)

(41)
गुरु गोबिंद दोऊ खड़े, का के लागूं पाय।
बलिहारी गुरु आपणे, गोबिंद दियो मिलाय॥
(42)
गुरु कीजिए जानि के, पानी पीजै छानि ।
बिना विचारे गुरु करे, परे चौरासी खानि॥

(43)
सतगुरू की महिमा अनंत, अनंत किया उपकार।
लोचन अनंत उघाडिया, अनंत दिखावणहार॥
(44)
गुरु किया है देह का, सतगुरु चीन्हा नाहिं ।
भवसागर के जाल में, फिर फिर गोता खाहि॥

(45)
शब्द गुरु का शब्द है, काया का गुरु काय।
भक्ति करै नित शब्द की, सत्गुरु यौं समुझाय॥
(46)
बलिहारी गुर आपणैं, द्यौंहाडी कै बार।
जिनि मानिष तैं देवता, करत न लागी बार।
(47)
कबीरा ते नर अन्ध है, गुरु को कहते और । 
हरि रूठे गुरु ठौर है, गुरु रुठै नहीं ठौर ॥
(48)
जो गुरु ते भ्रम न मिटे, भ्रान्ति न जिसका जाय।
सो गुरु झूठा जानिये, त्यागत देर न लाय॥

(49)
यह तन विषय की बेलरी, गुरु अमृत की खान।
सीस दिये जो गुरु मिलै, तो भी सस्ता जान॥ 

(50)
गुरु लोभ शिष लालची, दोनों खेले दाँव।
दोनों बूड़े बापुरे, चढ़ि पाथर की नाँव॥

कबीरदास जी के दोहे (भाग-2)

(21)
लूट सके तो लूट ले, राम नाम की लूट ।
पाछे फिरे पछताओगे, प्राण जाहिं जब छूट ॥
(22)
जहाँ दया तहाँ धर्म है, जहाँ लोभ तहाँ पाप ।
जहाँ क्रोध तहाँ पाप है, जहाँ क्षमा तहाँ आप ॥

(23)
कबीरा सोया क्या करे, उठि न भजे भगवान ।
जम जब घर ले जायेंगे, पड़ी रहेगी म्यान ॥
(24)
जाति न पूछो साधु की, पूछि लीजिए ज्ञान । 
मोल करो तलवार का, पड़ा रहन दो म्यान ॥ 

(25)
पाँच पहर धन्धे गया, तीन पहर गया सोय । 
एक पहर हरि नाम बिन, मुक्ति कैसे होय ॥
(26)
गारी ही सों ऊपजे, कलह कष्ट और मींच । 
हारि चले सो साधु है, लागि चले सो नींच ॥
(27)
कबीरा ते नर अन्ध है, गुरु को कहते और । 
हरि रूठे गुरु ठौर है, गुरु रुठै नहीं ठौर ॥
(28)
धीरे-धीरे रे मना, धीरे सब कुछ होय । 
माली सींचे सौ घड़ा, ॠतु आए फल होय ॥ 

(29)
माटी कहे कुम्हार से, तु क्या रौंदे मोय । 
एक दिन ऐसा आएगा, मैं रौंदूंगी तोय ॥ 

(30)
दुर्लभ मानुष जन्म है, देह न बारम्बार । 
तरुवर ज्यों पत्ती झड़े, बहुरि न लागे डार ॥
(31)
आय हैं सो जाएँगे, राजा रंक फकीर । 
एक सिंहासन चढ़ि चले, एक बँधे जात जंजीर ॥
(32)
माया मरी न मन मरा, मर-मर गए शरीर । 
आशा तृष्णा न मरी, कह गए दास कबीर ॥

(33)
शीलवन्त सबसे बड़ा, सब रतनन की खान । 
तीन लोक की सम्पदा, रही शील में आन ॥ 

(34)
काल करे सो आज कर, आज करे सो अब । 
पल में प्रलय होएगी, बहुरि करेगा कब ॥ 

(35)
रात गंवाई सोय के, दिवस गंवाया खाय । 
हीना जन्म अनमोल था, कोड़ी बदले जाय ॥ 

(36)
नींद निशानी मौत की, उठ कबीरा जाग । 
और रसायन छांड़ि के, नाम रसायन लाग ॥ 

(37)
जहाँ आपा तहाँ आपदां, जहाँ संशय तहाँ रोग । 
कह कबीर यह क्यों मिटे, चारों धीरज रोग ॥ 
  
(38)
माँगन मरण समान है, मति माँगो कोई भीख । 
माँगन से तो मरना भला, यह सतगुरु की सीख ॥ 

(39)
माया छाया एक सी, बिरला जाने कोय । 
भगता के पीछे लगे, सम्मुख भागे सोय ॥ 

(40)
आया था किस काम को, तु सोया चादर तान । 
सुरत सम्भाल ए गाफिल, अपना आप पहचान ॥

कबीरदास जी के दोहे (भाग-1)

(1)
चाह मिटी, चिंता मिटी मनवा बेपरवाह।
जिसको कुछ नहीं चाहिए वह शहनशाह॥
(2)
माटी कहे कुम्हार से, तु क्या रौंदे मोय।
एक दिन ऐसा आएगा, मैं रौंदूगी तोय॥
(3)
माला फेरत जुग भयाफिरा न मन का फेर । 
कर का मन का डार देमन का मनका फेर ॥
(4)
तिनका कबहुँ ना निंदयेजो पाँव तले होय । 
कबहुँ उड़ आँखो पड़ेपीर घानेरी होय ॥
(5)
गुरु गोविंद दोनों खड़ेकाके लागूं पाँय । 
बलिहारी गुरु आपनोगोविंद दियो मिलाय ॥
(6)
सुख मे सुमिरन ना कियादु:ख में करते याद । 
कह कबीर ता दास कीकौन सुने फरियाद ॥
(7)
साईं इतना दीजियेजा मे कुटुम समाय । 
मैं भी भूखा न रहूँसाधु ना भूखा जाय ॥
(8)
धीरे-धीरे रे मनाधीरे सब कुछ होय । 
माली सींचे सौ घड़ाॠतु आए फल होय ॥
(9)
कबीरा ते नर अँध हैगुरु को कहते और । 
हरि रूठे गुरु ठौर हैगुरु रूठे नहीं ठौर ॥
(10)
माया मरी न मन मरामर-मर गए शरीर । 
आशा तृष्णा न मरीकह गए दास कबीर ॥
(11)
रात गंवाई सोय केदिवस गंवाया खाय । 
हीरा जन्म अमोल थाकोड़ी बदले जाय ॥
(12)
दुःख में सुमिरन सब करे सुख में करै न कोय।
जो सुख में सुमिरन करे दुःख काहे को होय ॥
(13)
बडा हुआ तो क्या हुआ जैसे पेड़ खजूर।
पंथी को छाया नही फल लागे अति दूर ॥
(14)
साधु ऐसा चाहिए जैसा सूप सुभाय।
सार-सार को गहि रहै थोथा देई उडाय॥
(15)
तिनका कबहुँ ना निंदियेजो पाँव तले होय । 
कबहुँ उड़ आँखो पड़ेपीर घानेरी होय ॥ 
(16)
जो तोको काँटा बुवै ताहि बोव तू फूल।
तोहि फूल को फूल है वाको है तिरसुल॥
(17)
उठा बगुला प्रेम का तिनका चढ़ा अकास।
तिनका तिनके से मिला तिन का तिन के पास॥
(18)
सात समंदर की मसि करौं लेखनि सब बनराइ।
धरती सब कागद करौं हरि गुण लिखा न जाइ॥
(19)
साधू गाँठ न बाँधई उदर समाता लेय।
आगे पाछे हरी खड़े जब माँगे तब देय॥
(20)
माला फेरत जुग भयाफिरा न मन का फेर । 
कर का मन का डार देंमन का मनका फेर ॥

गाँधी जी ने ट्रेन में सिखाया सफाई का पाठ


महात्मा गाँधी जी 
उन दिनों गांधीजी दक्षिण अफ्रीका में रंगभेद के विरुद्ध सत्याग्रह चला रहे थे। भारतीयों के साथ होने वाले अपमान को वह अहिंसा और शांति से सुलझाना चाहते थे। वह ट्रेन से कहीं जा रहे थे। उनके डिब्बे में एक व्यक्ति बैठा हुआ था। वह बार-बार ट्रेन में थूक रहा था। गांधीजी ने उसे कुछ नहीं कहा, लेकिन वह जब भी थूकता, गांधीजी एक कपड़े से थूक को पोंछ कर साफ कर देते। उसे गांधीजी पर क्रोध आया।
उसने सोचा कि यह सफाई पसंद आदमी बिना कुछ कहे थूक पोंछ कर मुझे नीचा दिखाने पर तुला हुआ है। उसने फिर थूक दिया। गांधीजी ने बिना कुछ कहे चुपचाप थूक को पोंछ दिया। अब वह व्यक्ति बार-बार ट्रेन के डिब्बे में थूकने लगा। गांधीजी चुपचाप थूक को साफ कर देते। इसी बीच स्टेशन आ गया। थूकने वाले व्यक्ति ने देखा कि प्लैटफॉर्म पर काफी भीड़ लगी हुई है और वातावरण ‘गांधीजी की जय’ के नारों से गूंज रहा है। उसने चारों ओर देखकर गांधीजी को खोजने की कोशिश की।
उसने देखा कि कुछ देर बार थूक पोंछने वाला व्यक्ति डिब्बे से नीचे उतरा तो सभी लोग ‘गांधीजी की जय’ करते हुए उन्हें घेरकर खड़े हो गए। अब तो उस व्यक्ति को यह समझने में देर न लगी कि यही व्यक्ति गांधीजी हैं। वह पूरी भीड़ के सामने उनके पैर पकड़ कर रोने लगा और उनसे माफी मांगने लगा। उस व्यक्ति को पश्चाताप करते देख गांधीजी ने उसे उठाया और बोले, ‘क्षमा की कोई बात नहीं है, मैंने अपना कर्तव्य पालन किया है। ऐसा अवसर आने पर तुम भी ऐसा ही करना।’ गांधीजी की बात सुनकर वह व्यक्ति बोला, ‘जी, गांधीजी, मैं अवश्य ऐसा ही करूंगा। आज आपने मेरे जीवन को एक नई दिशा दी है।’