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रहस्य जीवन का

*आज का प्रेरक प्रसंग*

*रहस्य जीवन का*

          एक औरत बहुत महँगे कपड़े में अपने मनोचिकित्सक के पास गई और बोली "डॉ साहब!मुझे लगता है कि मेरा पूरा जीवन बेकार है, उसका कोई अर्थ नहीं है। क्या आप मेरी खुशियाँ ढूँढने में मदद करेंगें?"
           मनोचिकित्सक ने एक बूढ़ी औरत को बुलाया जो वहाँ साफ़-सफाई का काम करती थी और उस अमीर औरत से बोला - "मैं मैरी से तुम्हें यह बताने के लिए कहूँगा कि कैसे उसने अपने जीवन में खुशियाँ ढूँढी। मैं चाहता हूँ कि आप उसे ध्यान से सुनें।"
          तब उस बूढ़ी औरत ने अपना झाड़ू नीचे रखा, कुर्सी पर बैठ गई और बताने लगी - "मेरे पति की मलेरिया से मृत्यु हो गई और उसके 3 महीने बाद ही मेरे बेटे की भी सड़क हादसे में मौत हो गई। मेरे पास कोई नहीं था। मेरे जीवन में कुछ नहीं बचा था। मैं सो नहीं पाती थी, खा नहीं पाती थी, मैंने मुस्कुराना बंद कर दिया था।"
            मैं खुद का जीवन लेने की तरकीबें सोचने लगी थी। तब एक दिन,एक छोटा बिल्ली का बच्चा मेरे पीछे लग गया जब मैं काम से घर आ रही थी। बाहर बहुत ठंड थी इसलिए मैंने उस बच्चे को अंदर आने दिया। उस बिल्ली के बच्चे के लिए थोड़े से दूध का इंतजाम किया और वह सारी प्लेट सफाचट कर गया। फिर वह मेरे पैरों से लिपट गया और चाटने लगा।"
               "उस दिन बहुत महीनों बाद मैं मुस्कुराई। तब मैंने सोचा यदि इस बिल्ली के बच्चे की सहायता करना मुझे ख़ुशी दे सकता है,तो हो सकता है दूसरों के लिए कुछ करके मुझे और भी ख़ुशी मिले। इसलिए अगले दिन मैं अपने पड़ोसी, जो कि बीमार था,के लिए कुछ बिस्किट्स बना कर ले गई।"
          "हर दिन मैं कुछ नया और कुछ ऐसा करती थी जिससे दूसरों को ख़ुशी मिले और उन्हें खुश देख कर मुझे ख़ुशी मिलती थी।" 
            "आज,मैंने खुशियाँ ढूँढी हैं, दूसरों को ख़ुशी देकर।"
                यह सुन कर वह अमीर औरत रोने लगी। उसके पास वह सब था जो वह पैसे से खरीद सकती थी।
             लेकिन उसने वह चीज खो दी थी जो पैसे से नहीं खरीदी जा सकती।  
           मित्रों! हमारा जीवन इस बात पर निर्भर नहीं करता कि हम कितने खुश हैं अपितु इस बात पर निर्भर करता है कि हमारी वजह से कितने लोग खुश हैं।
        तो आईये आज शुभारम्भ करें इस संकल्प के साथ कि आज हम भी किसी न किसी की खुशी का कारण बनें।

प्रेरक प्रसंग - जब भिखारी बना दाता और राजा बना याचक

[प्रेरक प्रसंग]

जब भिखारी बना दाता और राजा बना याचक

एक भिखारी भीख मांगने निकला। उसका सोचना था कि जो कुछ भी मिल जाए, उस पर अधिकार कर लेना चाहिए। एक दिन वह राजपथ पर बढ़ा जा रहा था। एक घर से उसे कुछ अनाज मिला। वह आगे बढ़ा और मुख्य मार्ग पर आ गया।

अचानक उसने देखा कि नगर का राजा रथ पर सवार होकर उस ओर आ रहा है। वह सवारी देखने के लिए खड़ा हो गया, लेकिन यह क्या? राजा की सवारी उसके पास आकर रुक गई। राजा रथ से उतरा और भिखारी के सामने हाथ पसारकर बोला- मुझे कुछ भीख दो। देश पर संकट आने वाला है और पंडितों ने बताया है कि आज मार्ग में जो पहला भिखारी मिले, उससे भीख मांगें तो संकट टल जाएगा। इसलिए मना मत करना। भिखारी हक्का-बक्का रह गया। राजा, देश के संकट को टालने के लिए उससे भीख मांग रहा है। भिखारी ने झोली में हाथ डाला, तो उसकी मुट्ठी अनाज से भर गई। उसने सोचा इतना नहीं दूंगा। उसने मुट्ठी थोड़ी ढीली की और अनाज के कुछ दाने भरे। किंतु फिर सोचा कि इतना भी दूंगा तो मेरा क्या होगा? भिखारी घर पहुंचकर पत्नी से बोला- आज तो अनर्थ हो गया। मुझे भीख देनी पड़ी। पर न देता तो क्या करता। पत्नी ने झोली को उल्टा किया तो उसमें एक सोने का सिक्का निकला। यह देखकर भिखारी पछताकर बोला- मैंने राजा को सभी कुछ क्यों न दिया? यदि मैंने ऐसा किया होता तो आज मेरी जीवनभर की गरीबी मिट जाती।

इस प्रतीकात्मक कथा का संकेत यह है कि दान देने से संपन्नता हजार गुना बढ़ती है। यदि हम हृदय की सारी उदारता से दान करें, तो प्रतिफल में दीर्घ लाभ की प्राप्ति होती है।

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प्रेरक प्रसंग किनारे बैठकर स्वीकारी उसने लहरों की चुनौती

[दिनांक 05 दिसम्बर का प्रेरक प्रसंग ]

किनारे बैठकर स्वीकारी उसने लहरों की चुनौती

एक व्यक्ति नित्य ही समुद्र तट पर जाता और वहां घंटों बैठा रहता। आती-जाती लहरों को निरंतर देखता रहता। बीच-बीच में वह कुछ उठाकर समुद्र में फेंकता, फिर आकर अपने स्थान पर बैठ जाता। तट पर आने वाले लोग उसे विक्षिप्त समझते और प्राय: उसका उपहास किया करते थे। कोई उसे ताने कसता तो कोई अपशब्द कहता, किंतु वह मौन रहता और अपना यह प्रतिदिन का क्रम नहीं छोड़ता। एक दिन वह समुद्र तट पर खड़ा तरंगों को देख रहा था। थोड़ी देर बाद उसने समुद्र में कुछ फेंकना शुरू किया। उसकी इस गतिविधि को एक यात्री ने देखा। पहले तो उसने भी यही समझा कि यह मानसिक रूप से बीमार है, फिर उसके मन में आया कि इससे चलकर पूछें तो। वह व्यक्ति के निकट आकर बोला- भाई! यह तुम क्या कर रहे हो? उस व्यक्ति ने उत्तर दिया- देखते नहीं, सागर बार-बार अपनी लहरों को आदेश देता है कि वे इन नन्हे शंखों, घोंघों और मछलियों को जमीन पर पटककर मार दें। मैं इन्हें फिर से पानी में डाल देता हूं। यात्री बोला- यह क्रम तो चलता ही रहता है। लहरें उठती हैं, गिरती हैं, ऐसे में कुछ जीव तो बाहर होंगे ही। तुम्हारी इस चिंता से क्या अंतर पड़ेगा? उस व्यक्ति ने एक मुट्ठी शंख-घोंघों को अपनी अंजुली में उठाया और पानी में फेंकते हुए कहा- देखा कि नहीं, इनके जीवन में तो फर्क पड़ गया? वह यात्री सिर झुकाकर चलता बना और वह व्यक्ति वैसा ही करता रहा। सार यह है कि अच्छे कार्य का एक लघु प्रयास भी महत्वपूर्ण होता है। जैसे बूंद-बूंद से घट भरता है, वैसे ही नन्हे प्रयत्नों की श्रंखला से सत्कार्य को गति मिलती है। अत: बाधाओं की परवाह किए बगैर प्रयास करना न छोड़ें।

एक व्यक्ति नित्य ही समुद्र तट पर जाता और वहां घंटों बैठा रहता। आती-जाती लहरों को निरंतर देखता रहता। बीच-बीच में वह कुछ उठाकर समुद्र में फेंकता, फिर आकर अपने स्थान पर बैठ जाता। तट पर आने वाले लोग उसे विक्षिप्त समझते और प्राय: उसका उपहास किया करते थे। कोई उसे ताने कसता तो कोई अपशब्द कहता, किंतु वह मौन रहता और अपना यह प्रतिदिन का क्रम नहीं छोड़ता। एक दिन वह समुद्र तट पर खड़ा तरंगों को देख रहा था। थोड़ी देर बाद उसने समुद्र में कुछ फेंकना शुरू किया। उसकी इस गतिविधि को एक यात्री ने देखा। पहले तो उसने भी यही समझा कि यह मानसिक रूप से बीमार है, फिर उसके मन में आया कि इससे चलकर पूछें तो। वह व्यक्ति के निकट आकर बोला- भाई! यह तुम क्या कर रहे हो? उस व्यक्ति ने उत्तर दिया- देखते नहीं, सागर बार-बार अपनी लहरों को आदेश देता है कि वे इन नन्हे शंखों, घोंघों और मछलियों को जमीन पर पटककर मार दें। मैं इन्हें फिर से पानी में डाल देता हूं। यात्री बोला- यह क्रम तो चलता ही रहता है। लहरें उठती हैं, गिरती हैं, ऐसे में कुछ जीव तो बाहर होंगे ही। तुम्हारी इस चिंता से क्या अंतर पड़ेगा? उस व्यक्ति ने एक मुट्ठी शंख-घोंघों को अपनी अंजुली में उठाया और पानी में फेंकते हुए कहा- देखा कि नहीं, इनके जीवन में तो फर्क पड़ गया? वह यात्री सिर झुकाकर चलता बना और वह व्यक्ति वैसा ही करता रहा। सार यह है कि अच्छे कार्य का एक लघु प्रयास भी महत्वपूर्ण होता है। जैसे बूंद-बूंद से घट भरता है, वैसे ही नन्हे प्रयत्नों की श्रंखला से सत्कार्य को गति मिलती है। अत: बाधाओं की परवाह किए बगैर प्रयास करना न छोड़ें।

एक व्यक्ति नित्य ही समुद्र तट पर जाता और वहां घंटों बैठा रहता। आती-जाती लहरों को निरंतर देखता रहता। बीच-बीच में वह कुछ उठाकर समुद्र में फेंकता, फिर आकर अपने स्थान पर बैठ जाता। तट पर आने वाले लोग उसे विक्षिप्त समझते और प्राय: उसका उपहास किया करते थे। कोई उसे ताने कसता तो कोई अपशब्द कहता, किंतु वह मौन रहता और अपना यह प्रतिदिन का क्रम नहीं छोड़ता। एक दिन वह समुद्र तट पर खड़ा तरंगों को देख रहा था। थोड़ी देर बाद उसने समुद्र में कुछ फेंकना शुरू किया। उसकी इस गतिविधि को एक यात्री ने देखा। पहले तो उसने भी यही समझा कि यह मानसिक रूप से बीमार है, फिर उसके मन में आया कि इससे चलकर पूछें तो। वह व्यक्ति के निकट आकर बोला- भाई! यह तुम क्या कर रहे हो? उस व्यक्ति ने उत्तर दिया- देखते नहीं, सागर बार-बार अपनी लहरों को आदेश देता है कि वे इन नन्हे शंखों, घोंघों और मछलियों को जमीन पर पटककर मार दें। मैं इन्हें फिर से पानी में डाल देता हूं। यात्री बोला- यह क्रम तो चलता ही रहता है। लहरें उठती हैं, गिरती हैं, ऐसे में कुछ जीव तो बाहर होंगे ही। तुम्हारी इस चिंता से क्या अंतर पड़ेगा? उस व्यक्ति ने एक मुट्ठी शंख-घोंघों को अपनी अंजुली में उठाया और पानी में फेंकते हुए कहा- देखा कि नहीं, इनके जीवन में तो फर्क पड़ गया? वह यात्री सिर झुकाकर चलता बना और वह व्यक्ति वैसा ही करता रहा। सार यह है कि अच्छे कार्य का एक लघु प्रयास भी महत्वपूर्ण होता है। जैसे बूंद-बूंद से घट भरता है, वैसे ही नन्हे प्रयत्नों की श्रंखला से सत्कार्य को गति मिलती है। अत: बाधाओं की परवाह किए बगैर प्रयास करना न छोड़ें।

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प्रेरक प्रसंग - ज्ञान का अर्थ

*आज का प्रेरक प्रसंग*

*ज्ञान का अर्थ*

रामकृष्ण परमहंस ने अपने शिष्यों से वार्तालाप में एक बार बताया कि-
ईश्वर द्वारा बनायी गयी इस सृष्टि के कण-कण में परमेश्वर का वास है। अत: प्रत्येक जीव के लिए हमें अपने मन में आदर एवं प्रेम का भाव रखना चाहिए।“

एक शिष्य ने इस बात को मन में बैठा लिया। कुछ दिन बाद वह कहीं जा रहा था। उसने देखा कि सामने से एक हाथी आ रहा है।
हाथी पर बैठा महावत चिल्ला रहा था-
“सामने से हट जाओ, हाथी पागल है। वह मेरे काबू में भी नहीं है।“

शिष्य ने यह बात सुनी; पर उसने सोचा कि
“गुरुजी ने कहा था कि सृष्टि के कण-कण में परमेश्वर का वास है। अत: इस हाथी में भी परमेश्वर होगा। फिर वह मुझे हानि कैसे पहुँचा सकता है?” 

यह सोचकर उसने महावत की चेतावनी पर कोई ध्यान नहीं दिया। जब वह हाथी के निकट आया, तो परमेश्वर का रूप मानकर उसने हाथी को साष्टांग प्रणाम किया। इससे हाथी भड़क गया। उसने शिष्य को सूंड में लपेटा और दूर फेंक दिया। शिष्य को बहुत चोट आयी।

वह कराहता हुआ रामकृष्ण परमहंस के पास आया और बोला-
“आपने जो बताया था, वह सच नहीं है। यदि मुझमें भी वही ईश्वर है, जो हाथी में है, तो उसने मुझे फेंक क्यों दिया?”

परमहंस जी ने हँस कर पूछा-
“क्या हाथी अकेला था?”

शिष्य ने कहा-
“नहीं, उस पर महावत बैठा चिल्ला रहा था कि हाथी पागल है। उसके पास मत आओ।“

इस पर परमहंस जी ने कहा-
“पगले, हाथी परमेश्वर का रूप था, तो उस पर बैठा महावत भी तो उसी का रूप था। तुमने महावत रूपी परमेश्वर की बात नहीं मानी, इसलिए तुम्हें हानि उठानी पड़ी।“

कथा का अभिप्राय यह है कि....
प्रत्येक धारणा को, उसमें निहित विचार को विवेक बुद्धि से ग्रहण करना चाहिए। भक्ति या आदर भाव से ज्यों का त्यों पकड़ना, सरलता नहीं, मूढ़ता है।
बेशक! विचार-विलास भरी वक्रता न हो, स्थितप्रज्ञ सम जड़ता भी किसी काम की नहीं है।
वस्तुतः उस ज्ञान का कोई अर्थ नहीं, जिसके साथ बुध्दि, विवेक, सजगता और सावधानी न हो।

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ज्ञान का अर्थ [प्रेरक प्रसंग] रामकृष्ण परमहंस एवं शिष्य

रामकृष्ण परमहंस ने अपने शिष्यों से वार्तालाप में एक बार बताया कि-
“ईश्वर द्वारा बनायी गयी इस सृष्टि के कण-कण में परमेश्वर का वास है। अत: प्रत्येक जीव के लिए हमें अपने मन में आदर एवं प्रेम का भाव रखना चाहिए।“

एक शिष्य ने इस बात को मन में बैठा लिया। कुछ दिन बाद वह कहीं जा रहा था। उसने देखा कि सामने से एक हाथी आ रहा है।
हाथी पर बैठा महावत चिल्ला रहा था-
“सामने से हट जाओ, हाथी पागल है। वह मेरे काबू में भी नहीं है।“

शिष्य ने यह बात सुनी; पर उसने सोचा कि
“गुरुजी ने कहा था कि सृष्टि के कण-कण में परमेश्वर का वास है। अत: इस हाथी में भी परमेश्वर होगा। फिर वह मुझे हानि कैसे पहुँचा सकता है?” 

यह सोचकर उसने महावत की चेतावनी पर कोई ध्यान नहीं दिया। जब वह हाथी के निकट आया, तो परमेश्वर का रूप मानकर उसने हाथी को साष्टांग प्रणाम किया। इससे हाथी भड़क गया। उसने शिष्य को सूंड में लपेटा और दूर फेंक दिया। शिष्य को बहुत चोट आयी।

वह कराहता हुआ रामकृष्ण परमहंस के पास आया और बोला-
“आपने जो बताया था, वह सच नहीं है। यदि मुझमें भी वही ईश्वर है, जो हाथी में है, तो उसने मुझे फेंक क्यों दिया?”

परमहंस जी ने हँस कर पूछा-
“क्या हाथी अकेला था?”

शिष्य ने कहा-
“नहीं, उस पर महावत बैठा चिल्ला रहा था कि हाथी पागल है। उसके पास मत आओ।“

इस पर परमहंस जी ने कहा-
“पगले, हाथी परमेश्वर का रूप था, तो उस पर बैठा महावत भी तो उसी का रूप था। तुमने महावत रूपी परमेश्वर की बात नहीं मानी, इसलिए तुम्हें हानि उठानी पड़ी।“

कथा का अभिप्राय यह है कि....
प्रत्येक धारणा को, उसमें निहित विचार को विवेक बुद्धि से ग्रहण करना चाहिए। भक्ति या आदर भाव से ज्यों का त्यों पकड़ना, सरलता नहीं, मूढ़ता है।
बेशक! विचार-विलास भरी वक्रता न हो, स्थितप्रज्ञ सम जड़ता भी किसी काम की नहीं है।
वस्तुतः उस ज्ञान का कोई अर्थ नहीं, जिसके साथ बुध्दि, विवेक, सजगता और सावधानी न हो।

कर्त्तव्य का पाठ [प्रेरक प्रसंग ]

*कर्त्तव्य का पाठ [प्रेरक प्रसंग ]*

Hindi Short Motivational Story About Maharshi Jaajali

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तपस्वी जाजलि श्रद्धापूर्वक वानप्रस्थ धर्म का पालन करने के बाद खडे़ होकर कठोर तपस्या करने लगे।उन्हें गतिहीन देखकर पक्षियों ने उन्हें कोई वृक्ष समझ लिया और उनकी जटाओं में घोंसले बनाकर अंडे दे दिए।

अंडे बढे़ और फूटे, उनसे बच्चे निकले। बच्चे बड़े हुए और उड़ने भी लगे। एक बार जब बच्चे उड़कर पूरे एक महीने तक अपने घोंसले में नहीं लौटे, तब जाजलि हिले।

वह स्वयं अपनी तपस्या पर आश्चर्य करने लगे और अपने को सिद्ध समझने लगे। उसी समय आकाशवाणी हुई, 'जाजलि, गर्व मत करो। काशी में रहने वाले व्यापारी तुलाधार के समान तुम धार्मिक नहीं हो।'

आकाशवाणी सुनकर जाजलि को बड़ा आश्चर्य हुआ। वह उसी समय काशी चल पड़े। उन्होंने देखा कि तुलाधार तो एक अत्यंत साधारण दुकानदार हैं। वह अपनी दुकान पर बैठकर ग्राहकों को तौल-तौलकर सौदा दे रहे थे।

जाजलि को तब और भी आश्चर्य हुआ जब तुलाधार ने उन्हें उठकर प्रणाम किया, उनकी तपस्या, उनके गर्व तथा आकाशवाणी की बात भी बता दी। जाजलि ने पूछा, 'तुम्हें यह सब कैसे मालूम?' तुलाधार ने विनम्रतापूर्वक कहा, 'सब प्रभु की कृपा है। मैं अपने कर्त्तव्य का सावधानी से पालन करता हूं। न मद्य बेचता हूं, न और कोई निंदित पदार्थ। अपने ग्राहकों को मैं तौल में कभी ठगता नहीं। ग्राहक बूढ़ा हो या बच्चा, वह भाव जानता हो या न जानता हो, मैं उसे उचित मूल्य पर उचित वस्तु ही देता हूं। किसी पदार्थ में दूसरा कोई दूषित पदार्थ नहीं मिलाता। ग्राहक की कठिनाई का लाभ उठाकर मैं अनुचित लाभ भी उससे नहीं लेता हूं। ग्राहक की सेवा करना मेरा कर्त्तव्य है, यह बात मैं सदा स्मरण रखता हूं। मैं राग-द्वेष और लोभ से दूर रहता हूं। यथाशक्ति दान करता हूं और अतिथियों की सेवा करता हूं। हिंसारहित कर्म ही मुझे प्रिय है। कामना का त्याग करके संतोषपूर्वक जीता हूं।'

जाजलि समझ गए कि आखिर क्यों उन्हें तुलाधार के पास भेजा गया। उन्होंने तुलाधार की बातों को अपने जीवन में उतारने का संकल्प किया।
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सकारात्मक सोच का महत्त्व

प्रेरक प्रसंग

 
सकारात्मक सोच का महत्त्व

एक व्यक्ति ऑटो से रेलवे स्टेशन जा रहा था।
ऑटो वाला बड़े आराम से ऑटो चला रहा था।
एक कार अचानक ही पार्किंग से निकलकर रोड पर आ गई।
ऑटो ड्राइवर ने तेजी से ब्रेक लगाया और कार, ऑटो से टकराते-टकराते बची।
कार चला रहा आदमी गुस्से में ऑटोवाले को ही भला-बुरा कहने लगा जबकि गलती उसकी थी।
ऑटो चालक एक सत्संगी (सकारात्मक विचार सुनने-सुनाने वाला) था।
उसने कार वाले की बातों पर गुस्सा नहीं किया और क्षमा माँगते हुए आगे बढ़ गया।
ऑटो में बैठे व्यक्ति को कार वाले की हरकत पर गुस्सा आ रहा था और उसने ऑटो वाले से पूछा... तुमने उस कार वाले को बिना कुछ कहे ऐसे ही क्यों जाने दिया।
उसने तुम्हें भला-बुरा कहा जबकि गलती तो उसकी थी।
हमारी किस्मत अच्छी है.... ,
नहीं तो उसकी वजह से हम अभी अस्पताल में होते।
ऑटो वाले ने बहोत मार्मिक जवाब दिया......
"साहब,. *बहुत से लोग गार्बेज ट्रक (कूड़े का ट्रक) की तरह होते हैं। वे बहुत सारा कूड़ा अपने दिमाग में भरे हुए चलते हैं।......*
जिन चीजों की जीवन में कोई ज़रूरत नहीं होती उनको मेहनत करके जोड़ते रहते हैं जैसे.... क्रोध, घृणा, चिंता, निराशा आदि।
जब उनके दिमाग में इनका कूड़ा बहुत अधिक हो जाता है.... तो, वे *अपना बोझ हल्का करने के लिए इसे दूसरों पर फेंकने का मौका ढूँढ़ने लगते हैं।*
इसलिए .....
मैं ऐसे लोगों से दूरी बनाए रखता हूँ और उन्हें दूर से ही मुस्कराकर अलविदा कह देता हूँ।
क्योंकि ......
अगर उन जैसे लोगों द्वारा गिराया हुआ कूड़ा मैंने स्वीकार कर लिया.....
तो,
मैं भी कूड़े का ट्रक बन जाऊँगा और अपने साथ-साथ आसपास के लोगों पर भी वह कूड़ा गिराता रहूँगा।
मैं सोचता हूँ जिंदगी बहुत ख़ूबसूरत है इसलिए......
जो हमसे अच्छा व्यवहार करते हैं उन्हें धन्यवाद कहो और जो हमसे अच्छा व्यवहार नहीं करते उन्हें मुस्कुराकर भूला दो।
*हमें यह याद रखना चाहिए* कि सभी मानसिक रोगी केवल अस्पताल में ही नहीं रहते हैं.......
*कुछ हमारे आसपास खुले में भी घूमते रहते हैं!*
*प्रकृति के नियम:*
*यदि खेत में बीज न डाले जाएँ..... तो ,कुदरत उसे घास-फूस से भर देती है।*
उसी तरह से......
यदि दिमाग में सकारात्मक विचार न भरें जाएँ तो नकारात्मक विचार अपनी जगह बना ही लेते हैं।
*दूसरा नियम है कि* जिसके पास जो होता है वह वही बाँटता है।.......
“सुखी” सुख बाँटता है,
“दुखी” दुख बाँटता है,
“ज्ञानी” ज्ञान बाँटता है,"
"भ्रमित भ्रम बाँटता है"
और....
“भयभीत” भय बाँटता है।
जो खुद डरा हुआ है वह,
औरों को डराता है,
दबा हुआ दबाता है,
चमका हुआ चमकाता है।

इसलिए.... नकारात्मक लोगों से दूरी बनाकर खुद को नकारात्मकता से दूर रखें।
और जीवन में सकारात्मकता अपनाएं।

एक बोध कथा -"चार बात"

एक बोध कथा -"चार बात"

एक राजा के विशाल महल में एक सुंदर वाटिका थी, जिसमें अंगूरों की एक बेल लगी थी। वहां रोज एक चिड़िया आती और मीठे अंगूर चुन-चुनकर खा जाती और अधपके और खट्टे अंगूरों को नीचे गिरा देती।

माली ने चिड़िया को पकड़ने की बहुत कोशिश की पर वह हाथ नहीं आईहताश होकर एक दिन माली ने राजा को यह बात बताईयह सुनकर भानुप्रताप को आश्चर्य हुआ। उसने चिड़िया को सबक सिखाने की ठान ली और वाटिका में छिपकर बैठ गया।

जब चिड़िया अंगूर खाने आई तो राजा ने तेजी दिखाते हुए उसे पकड़ लिया। जब राजा चिड़िया को मारने लगा, तो चिड़िया ने कहा, 'हे राजन, मुझे मत मारो। मैं आपको ज्ञान की 4 महत्वपूर्ण बातें बताऊंगी।'

राजा ने कहा, 'जल्दी बता।'

चिड़िया बोली, 'हे राजन, सबसे पहले, तो हाथ में आए शत्रु को कभी मत छोड़ो।'

राजा ने कहा, 'दूसरी बात बता।'

चिड़िया ने कहा, 'असंभव बात पर भूलकर भी विश्वास मत करो और तीसरी बात यह है कि बीती बातों पर कभी पश्चाताप मत करो।'

राजा ने कहा, 'अब चौथी बात भी जल्दी बता दो।'

इस पर चिड़िया बोली, 'चौथी बात बड़ी गूढ़ और रहस्यमयी है। मुझे जरा ढीला छोड़ दें क्योंकि मेरा दम घुट रहा है। कुछ सांस लेकर ही बता सकूंगी।'

चिड़िया की बात सुन जैसे ही राजा ने अपना हाथ ढीला किया, चिड़िया उड़कर एक डाल पर बैठ गई और बोली, 'मेरे पेट में दो हीरे हैं।'

यह सुनकर राजा पश्चाताप में डूब गया। राजा की हालत देख चिड़िया बोली, *'हे राजन, ज्ञान की बात सुनने और पढ़ने से कुछ लाभ नहीं होता, उस पर अमल करने से होता है। आपने मेरी बात नहीं मानी।

मैं आपकी शत्रु थी, फिर भी आपने पकड़कर मुझे छोड़ दिया।

मैंने यह असंभव बात कही कि मेरे पेट में दो हीरे हैं फिर भी आपने उस पर भरोसा कर लिया।

आपके हाथ में वे काल्पनिक हीरे नहीं आए, तो आप पछताने लगे।

उपदेशों को जीवन में उतारे बगैर उनका कोई मोल नहीं।

गूरू के पास अज्ञानी बनकर जाना चाहिए!!!

ज्ञान हमेशा झुककर हासिल किया जा सकता है।
एक शिष्य गुरू के पास आया। शिष्य पंडित था और मशहूर भी, गुरू से भी ज्यादा। सारे शास्त्र उसे कंठस्थ थे। समस्या यह थी कि सभी शास्त्र कंठस्थ होने के बाद भी वह सत्य की खोज नहीं कर सका था। ऐसे में जीवन के अंतिम क्षणों में उसने गुरू की तलाश शुरू की। संयोग से गुरू मिल गएवह उनकी शरण में पहुंचा।
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गुरू ने पंडित की तरफ देखा और कहा, 'तुम लिख लाओ कि तुम क्या-क्या जानते हो। तुम जो जानते हो, फिर उसकी क्या बात करनी है। तुम जो नहीं जानते हो, वह तुम्हें बता दूंगा।' शिष्य को वापस आने में सालभर लग गया, क्योंकि उसे तो बहुत शास्त्र याद थे। वह सब लिखता ही रहा, लिखता ही रहा। कई हजार पृष्ठ भर गए। पोथी लेकर आया। गुरू ने फिर कहा, 'यह बहुत ज्यादा है। मैं बूढ़ा हो गया। मेरी मृत्यु करीब है। इतना न पढ़ सकूंगा। तुम इसे संक्षिप्त कर लाओ, सार लिख लाओ।'

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पंडित फिर चला गया। तीन महीने लग गएअब केवल सौ पृष्ठ थे। गुरू ने कहा, मैं 'यह भी ज्यादा है। इसे और संक्षिप्त कर लाओ।' कुछ समय बाद शिष्य लौटा। एक ही पन्ने पर सार-सूत्र लिख लाया था, लेकिन गुरू बिल्कुल मरने के करीब थे। कहा, 'तुम्हारे लिए ही रूका हूं। तुम्हें समझ कब आएगी? और संक्षिप्त कर लाओ।' शिष्य को होश आया। भागा दूसरे कमरे से एक खाली कागज ले आया। गुरू के हाथ में खाली कागज दिया। गुरू ने कहा, 'अब तुम शिष्य हुए। मुझसे तुम्हारा संबंध बना रहेगा।' कोरा कागज लाने का अर्थ हुआ, मुझे कुछ भी पता नहीं, मैं अज्ञानी हूं। जो ऐसे भाव रख सके गुरू के पास, वही शिष्य है।

निष्कर्ष: -

गुरू तो ज्ञान-प्राप्ति का प्रमुख स्त्रोत है, उसे अज्ञानी बनकर ही हासिल किया जा सकता है। पंडित बनने से गुरू नहीं मिलते।।
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