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रहस्य जीवन का

*आज का प्रेरक प्रसंग*

*रहस्य जीवन का*

          एक औरत बहुत महँगे कपड़े में अपने मनोचिकित्सक के पास गई और बोली "डॉ साहब!मुझे लगता है कि मेरा पूरा जीवन बेकार है, उसका कोई अर्थ नहीं है। क्या आप मेरी खुशियाँ ढूँढने में मदद करेंगें?"
           मनोचिकित्सक ने एक बूढ़ी औरत को बुलाया जो वहाँ साफ़-सफाई का काम करती थी और उस अमीर औरत से बोला - "मैं मैरी से तुम्हें यह बताने के लिए कहूँगा कि कैसे उसने अपने जीवन में खुशियाँ ढूँढी। मैं चाहता हूँ कि आप उसे ध्यान से सुनें।"
          तब उस बूढ़ी औरत ने अपना झाड़ू नीचे रखा, कुर्सी पर बैठ गई और बताने लगी - "मेरे पति की मलेरिया से मृत्यु हो गई और उसके 3 महीने बाद ही मेरे बेटे की भी सड़क हादसे में मौत हो गई। मेरे पास कोई नहीं था। मेरे जीवन में कुछ नहीं बचा था। मैं सो नहीं पाती थी, खा नहीं पाती थी, मैंने मुस्कुराना बंद कर दिया था।"
            मैं खुद का जीवन लेने की तरकीबें सोचने लगी थी। तब एक दिन,एक छोटा बिल्ली का बच्चा मेरे पीछे लग गया जब मैं काम से घर आ रही थी। बाहर बहुत ठंड थी इसलिए मैंने उस बच्चे को अंदर आने दिया। उस बिल्ली के बच्चे के लिए थोड़े से दूध का इंतजाम किया और वह सारी प्लेट सफाचट कर गया। फिर वह मेरे पैरों से लिपट गया और चाटने लगा।"
               "उस दिन बहुत महीनों बाद मैं मुस्कुराई। तब मैंने सोचा यदि इस बिल्ली के बच्चे की सहायता करना मुझे ख़ुशी दे सकता है,तो हो सकता है दूसरों के लिए कुछ करके मुझे और भी ख़ुशी मिले। इसलिए अगले दिन मैं अपने पड़ोसी, जो कि बीमार था,के लिए कुछ बिस्किट्स बना कर ले गई।"
          "हर दिन मैं कुछ नया और कुछ ऐसा करती थी जिससे दूसरों को ख़ुशी मिले और उन्हें खुश देख कर मुझे ख़ुशी मिलती थी।" 
            "आज,मैंने खुशियाँ ढूँढी हैं, दूसरों को ख़ुशी देकर।"
                यह सुन कर वह अमीर औरत रोने लगी। उसके पास वह सब था जो वह पैसे से खरीद सकती थी।
             लेकिन उसने वह चीज खो दी थी जो पैसे से नहीं खरीदी जा सकती।  
           मित्रों! हमारा जीवन इस बात पर निर्भर नहीं करता कि हम कितने खुश हैं अपितु इस बात पर निर्भर करता है कि हमारी वजह से कितने लोग खुश हैं।
        तो आईये आज शुभारम्भ करें इस संकल्प के साथ कि आज हम भी किसी न किसी की खुशी का कारण बनें।

प्रेरक प्रसंग - जब भिखारी बना दाता और राजा बना याचक

[प्रेरक प्रसंग]

जब भिखारी बना दाता और राजा बना याचक

एक भिखारी भीख मांगने निकला। उसका सोचना था कि जो कुछ भी मिल जाए, उस पर अधिकार कर लेना चाहिए। एक दिन वह राजपथ पर बढ़ा जा रहा था। एक घर से उसे कुछ अनाज मिला। वह आगे बढ़ा और मुख्य मार्ग पर आ गया।

अचानक उसने देखा कि नगर का राजा रथ पर सवार होकर उस ओर आ रहा है। वह सवारी देखने के लिए खड़ा हो गया, लेकिन यह क्या? राजा की सवारी उसके पास आकर रुक गई। राजा रथ से उतरा और भिखारी के सामने हाथ पसारकर बोला- मुझे कुछ भीख दो। देश पर संकट आने वाला है और पंडितों ने बताया है कि आज मार्ग में जो पहला भिखारी मिले, उससे भीख मांगें तो संकट टल जाएगा। इसलिए मना मत करना। भिखारी हक्का-बक्का रह गया। राजा, देश के संकट को टालने के लिए उससे भीख मांग रहा है। भिखारी ने झोली में हाथ डाला, तो उसकी मुट्ठी अनाज से भर गई। उसने सोचा इतना नहीं दूंगा। उसने मुट्ठी थोड़ी ढीली की और अनाज के कुछ दाने भरे। किंतु फिर सोचा कि इतना भी दूंगा तो मेरा क्या होगा? भिखारी घर पहुंचकर पत्नी से बोला- आज तो अनर्थ हो गया। मुझे भीख देनी पड़ी। पर न देता तो क्या करता। पत्नी ने झोली को उल्टा किया तो उसमें एक सोने का सिक्का निकला। यह देखकर भिखारी पछताकर बोला- मैंने राजा को सभी कुछ क्यों न दिया? यदि मैंने ऐसा किया होता तो आज मेरी जीवनभर की गरीबी मिट जाती।

इस प्रतीकात्मक कथा का संकेत यह है कि दान देने से संपन्नता हजार गुना बढ़ती है। यदि हम हृदय की सारी उदारता से दान करें, तो प्रतिफल में दीर्घ लाभ की प्राप्ति होती है।

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प्रेरक प्रसंग किनारे बैठकर स्वीकारी उसने लहरों की चुनौती

[दिनांक 05 दिसम्बर का प्रेरक प्रसंग ]

किनारे बैठकर स्वीकारी उसने लहरों की चुनौती

एक व्यक्ति नित्य ही समुद्र तट पर जाता और वहां घंटों बैठा रहता। आती-जाती लहरों को निरंतर देखता रहता। बीच-बीच में वह कुछ उठाकर समुद्र में फेंकता, फिर आकर अपने स्थान पर बैठ जाता। तट पर आने वाले लोग उसे विक्षिप्त समझते और प्राय: उसका उपहास किया करते थे। कोई उसे ताने कसता तो कोई अपशब्द कहता, किंतु वह मौन रहता और अपना यह प्रतिदिन का क्रम नहीं छोड़ता। एक दिन वह समुद्र तट पर खड़ा तरंगों को देख रहा था। थोड़ी देर बाद उसने समुद्र में कुछ फेंकना शुरू किया। उसकी इस गतिविधि को एक यात्री ने देखा। पहले तो उसने भी यही समझा कि यह मानसिक रूप से बीमार है, फिर उसके मन में आया कि इससे चलकर पूछें तो। वह व्यक्ति के निकट आकर बोला- भाई! यह तुम क्या कर रहे हो? उस व्यक्ति ने उत्तर दिया- देखते नहीं, सागर बार-बार अपनी लहरों को आदेश देता है कि वे इन नन्हे शंखों, घोंघों और मछलियों को जमीन पर पटककर मार दें। मैं इन्हें फिर से पानी में डाल देता हूं। यात्री बोला- यह क्रम तो चलता ही रहता है। लहरें उठती हैं, गिरती हैं, ऐसे में कुछ जीव तो बाहर होंगे ही। तुम्हारी इस चिंता से क्या अंतर पड़ेगा? उस व्यक्ति ने एक मुट्ठी शंख-घोंघों को अपनी अंजुली में उठाया और पानी में फेंकते हुए कहा- देखा कि नहीं, इनके जीवन में तो फर्क पड़ गया? वह यात्री सिर झुकाकर चलता बना और वह व्यक्ति वैसा ही करता रहा। सार यह है कि अच्छे कार्य का एक लघु प्रयास भी महत्वपूर्ण होता है। जैसे बूंद-बूंद से घट भरता है, वैसे ही नन्हे प्रयत्नों की श्रंखला से सत्कार्य को गति मिलती है। अत: बाधाओं की परवाह किए बगैर प्रयास करना न छोड़ें।

एक व्यक्ति नित्य ही समुद्र तट पर जाता और वहां घंटों बैठा रहता। आती-जाती लहरों को निरंतर देखता रहता। बीच-बीच में वह कुछ उठाकर समुद्र में फेंकता, फिर आकर अपने स्थान पर बैठ जाता। तट पर आने वाले लोग उसे विक्षिप्त समझते और प्राय: उसका उपहास किया करते थे। कोई उसे ताने कसता तो कोई अपशब्द कहता, किंतु वह मौन रहता और अपना यह प्रतिदिन का क्रम नहीं छोड़ता। एक दिन वह समुद्र तट पर खड़ा तरंगों को देख रहा था। थोड़ी देर बाद उसने समुद्र में कुछ फेंकना शुरू किया। उसकी इस गतिविधि को एक यात्री ने देखा। पहले तो उसने भी यही समझा कि यह मानसिक रूप से बीमार है, फिर उसके मन में आया कि इससे चलकर पूछें तो। वह व्यक्ति के निकट आकर बोला- भाई! यह तुम क्या कर रहे हो? उस व्यक्ति ने उत्तर दिया- देखते नहीं, सागर बार-बार अपनी लहरों को आदेश देता है कि वे इन नन्हे शंखों, घोंघों और मछलियों को जमीन पर पटककर मार दें। मैं इन्हें फिर से पानी में डाल देता हूं। यात्री बोला- यह क्रम तो चलता ही रहता है। लहरें उठती हैं, गिरती हैं, ऐसे में कुछ जीव तो बाहर होंगे ही। तुम्हारी इस चिंता से क्या अंतर पड़ेगा? उस व्यक्ति ने एक मुट्ठी शंख-घोंघों को अपनी अंजुली में उठाया और पानी में फेंकते हुए कहा- देखा कि नहीं, इनके जीवन में तो फर्क पड़ गया? वह यात्री सिर झुकाकर चलता बना और वह व्यक्ति वैसा ही करता रहा। सार यह है कि अच्छे कार्य का एक लघु प्रयास भी महत्वपूर्ण होता है। जैसे बूंद-बूंद से घट भरता है, वैसे ही नन्हे प्रयत्नों की श्रंखला से सत्कार्य को गति मिलती है। अत: बाधाओं की परवाह किए बगैर प्रयास करना न छोड़ें।

एक व्यक्ति नित्य ही समुद्र तट पर जाता और वहां घंटों बैठा रहता। आती-जाती लहरों को निरंतर देखता रहता। बीच-बीच में वह कुछ उठाकर समुद्र में फेंकता, फिर आकर अपने स्थान पर बैठ जाता। तट पर आने वाले लोग उसे विक्षिप्त समझते और प्राय: उसका उपहास किया करते थे। कोई उसे ताने कसता तो कोई अपशब्द कहता, किंतु वह मौन रहता और अपना यह प्रतिदिन का क्रम नहीं छोड़ता। एक दिन वह समुद्र तट पर खड़ा तरंगों को देख रहा था। थोड़ी देर बाद उसने समुद्र में कुछ फेंकना शुरू किया। उसकी इस गतिविधि को एक यात्री ने देखा। पहले तो उसने भी यही समझा कि यह मानसिक रूप से बीमार है, फिर उसके मन में आया कि इससे चलकर पूछें तो। वह व्यक्ति के निकट आकर बोला- भाई! यह तुम क्या कर रहे हो? उस व्यक्ति ने उत्तर दिया- देखते नहीं, सागर बार-बार अपनी लहरों को आदेश देता है कि वे इन नन्हे शंखों, घोंघों और मछलियों को जमीन पर पटककर मार दें। मैं इन्हें फिर से पानी में डाल देता हूं। यात्री बोला- यह क्रम तो चलता ही रहता है। लहरें उठती हैं, गिरती हैं, ऐसे में कुछ जीव तो बाहर होंगे ही। तुम्हारी इस चिंता से क्या अंतर पड़ेगा? उस व्यक्ति ने एक मुट्ठी शंख-घोंघों को अपनी अंजुली में उठाया और पानी में फेंकते हुए कहा- देखा कि नहीं, इनके जीवन में तो फर्क पड़ गया? वह यात्री सिर झुकाकर चलता बना और वह व्यक्ति वैसा ही करता रहा। सार यह है कि अच्छे कार्य का एक लघु प्रयास भी महत्वपूर्ण होता है। जैसे बूंद-बूंद से घट भरता है, वैसे ही नन्हे प्रयत्नों की श्रंखला से सत्कार्य को गति मिलती है। अत: बाधाओं की परवाह किए बगैर प्रयास करना न छोड़ें।

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प्रेरक प्रसंग - ज्ञान का अर्थ

*आज का प्रेरक प्रसंग*

*ज्ञान का अर्थ*

रामकृष्ण परमहंस ने अपने शिष्यों से वार्तालाप में एक बार बताया कि-
ईश्वर द्वारा बनायी गयी इस सृष्टि के कण-कण में परमेश्वर का वास है। अत: प्रत्येक जीव के लिए हमें अपने मन में आदर एवं प्रेम का भाव रखना चाहिए।“

एक शिष्य ने इस बात को मन में बैठा लिया। कुछ दिन बाद वह कहीं जा रहा था। उसने देखा कि सामने से एक हाथी आ रहा है।
हाथी पर बैठा महावत चिल्ला रहा था-
“सामने से हट जाओ, हाथी पागल है। वह मेरे काबू में भी नहीं है।“

शिष्य ने यह बात सुनी; पर उसने सोचा कि
“गुरुजी ने कहा था कि सृष्टि के कण-कण में परमेश्वर का वास है। अत: इस हाथी में भी परमेश्वर होगा। फिर वह मुझे हानि कैसे पहुँचा सकता है?” 

यह सोचकर उसने महावत की चेतावनी पर कोई ध्यान नहीं दिया। जब वह हाथी के निकट आया, तो परमेश्वर का रूप मानकर उसने हाथी को साष्टांग प्रणाम किया। इससे हाथी भड़क गया। उसने शिष्य को सूंड में लपेटा और दूर फेंक दिया। शिष्य को बहुत चोट आयी।

वह कराहता हुआ रामकृष्ण परमहंस के पास आया और बोला-
“आपने जो बताया था, वह सच नहीं है। यदि मुझमें भी वही ईश्वर है, जो हाथी में है, तो उसने मुझे फेंक क्यों दिया?”

परमहंस जी ने हँस कर पूछा-
“क्या हाथी अकेला था?”

शिष्य ने कहा-
“नहीं, उस पर महावत बैठा चिल्ला रहा था कि हाथी पागल है। उसके पास मत आओ।“

इस पर परमहंस जी ने कहा-
“पगले, हाथी परमेश्वर का रूप था, तो उस पर बैठा महावत भी तो उसी का रूप था। तुमने महावत रूपी परमेश्वर की बात नहीं मानी, इसलिए तुम्हें हानि उठानी पड़ी।“

कथा का अभिप्राय यह है कि....
प्रत्येक धारणा को, उसमें निहित विचार को विवेक बुद्धि से ग्रहण करना चाहिए। भक्ति या आदर भाव से ज्यों का त्यों पकड़ना, सरलता नहीं, मूढ़ता है।
बेशक! विचार-विलास भरी वक्रता न हो, स्थितप्रज्ञ सम जड़ता भी किसी काम की नहीं है।
वस्तुतः उस ज्ञान का कोई अर्थ नहीं, जिसके साथ बुध्दि, विवेक, सजगता और सावधानी न हो।

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ज्ञान का अर्थ [प्रेरक प्रसंग] रामकृष्ण परमहंस एवं शिष्य

रामकृष्ण परमहंस ने अपने शिष्यों से वार्तालाप में एक बार बताया कि-
“ईश्वर द्वारा बनायी गयी इस सृष्टि के कण-कण में परमेश्वर का वास है। अत: प्रत्येक जीव के लिए हमें अपने मन में आदर एवं प्रेम का भाव रखना चाहिए।“

एक शिष्य ने इस बात को मन में बैठा लिया। कुछ दिन बाद वह कहीं जा रहा था। उसने देखा कि सामने से एक हाथी आ रहा है।
हाथी पर बैठा महावत चिल्ला रहा था-
“सामने से हट जाओ, हाथी पागल है। वह मेरे काबू में भी नहीं है।“

शिष्य ने यह बात सुनी; पर उसने सोचा कि
“गुरुजी ने कहा था कि सृष्टि के कण-कण में परमेश्वर का वास है। अत: इस हाथी में भी परमेश्वर होगा। फिर वह मुझे हानि कैसे पहुँचा सकता है?” 

यह सोचकर उसने महावत की चेतावनी पर कोई ध्यान नहीं दिया। जब वह हाथी के निकट आया, तो परमेश्वर का रूप मानकर उसने हाथी को साष्टांग प्रणाम किया। इससे हाथी भड़क गया। उसने शिष्य को सूंड में लपेटा और दूर फेंक दिया। शिष्य को बहुत चोट आयी।

वह कराहता हुआ रामकृष्ण परमहंस के पास आया और बोला-
“आपने जो बताया था, वह सच नहीं है। यदि मुझमें भी वही ईश्वर है, जो हाथी में है, तो उसने मुझे फेंक क्यों दिया?”

परमहंस जी ने हँस कर पूछा-
“क्या हाथी अकेला था?”

शिष्य ने कहा-
“नहीं, उस पर महावत बैठा चिल्ला रहा था कि हाथी पागल है। उसके पास मत आओ।“

इस पर परमहंस जी ने कहा-
“पगले, हाथी परमेश्वर का रूप था, तो उस पर बैठा महावत भी तो उसी का रूप था। तुमने महावत रूपी परमेश्वर की बात नहीं मानी, इसलिए तुम्हें हानि उठानी पड़ी।“

कथा का अभिप्राय यह है कि....
प्रत्येक धारणा को, उसमें निहित विचार को विवेक बुद्धि से ग्रहण करना चाहिए। भक्ति या आदर भाव से ज्यों का त्यों पकड़ना, सरलता नहीं, मूढ़ता है।
बेशक! विचार-विलास भरी वक्रता न हो, स्थितप्रज्ञ सम जड़ता भी किसी काम की नहीं है।
वस्तुतः उस ज्ञान का कोई अर्थ नहीं, जिसके साथ बुध्दि, विवेक, सजगता और सावधानी न हो।