कबीरदास जी के दोहे (भाग-4)

(51)
समझाये समझे नहीं, पर के साथ बिकाय । 
मैं खींचत हूँ आपके, तू चला जमपुर जाए ॥ 


(52)
हंसा मोती विण्न्या, कुञ्च्न थार भराय । 
जो जन मार्ग न जाने, सो तिस कहा कराय ॥

(53)
कहना सो कह दिया, अब कुछ कहा न जाय । 
एक रहा दूजा गया, दरिया लहर समाय ॥ 53 ॥ 

(54)
वस्तु है ग्राहक नहीं, वस्तु सागर अनमोल । 
बिना करम का मानव, फिरैं डांवाडोल ॥ 
(55)
कली खोटा जग आंधरा, शब्द न माने कोय । 
चाहे कहँ सत आइना, जो जग बैरी होय ॥
(56)
कामी, क्रोधी, लालची, इनसे भक्ति न होय । 
भक्ति करे कोइ सूरमा, जाति वरन कुल खोय ॥
(57)
जागन में सोवन करे, साधन में लौ लाय । 
सूरत डोर लागी रहे, तार टूट नाहिं जाय ॥
(58)
साधु ऐसा चहिए ,जैसा सूप सुभाय । 
सार-सार को गहि रहे, थोथ देइ उड़ाय ॥
(59)
लगी लग्न छूटे नाहिं, जीभ चोंच जरि जाय । 
मीठा कहा अंगार में, जाहि चकोर चबाय ॥
(60)
भक्ति गेंद चौगान की, भावे कोई ले जाय । 
कह कबीर कुछ भेद नाहिं, कहां रंक कहां राय ॥
(61)
घट का परदा खोलकर, सन्मुख दे दीदार । 
बाल सनेही सांइयाँ, आवा अन्त का यार ॥ 

(62)
अन्तर्यामी एक तुम, आत्मा के आधार । 
जो तुम छोड़ो हाथ तो, कौन उतारे पार ॥ 62 ॥ 

(63)
मैं अपराधी जन्म का, नख-सिख भरा विकार । 
तुम दाता दु:ख भंजना, मेरी करो सम्हार ॥ 

(64)
प्रेम न बड़ी ऊपजै, प्रेम न हाट बिकाय । 
राजा-प्रजा जोहि रुचें, शीश देई ले जाय ॥ 

(65)
प्रेम प्याला जो पिये, शीश दक्षिणा देय । 
लोभी शीश न दे सके, नाम प्रेम का लेय ॥ 

(66)
सुमिरन में मन लाइए, जैसे नाद कुरंग । 
कहैं कबीर बिसरे नहीं, प्रान तजे तेहि संग ॥ 

(67)
सुमरित सुरत जगाय कर, मुख के कछु न बोल । 
बाहर का पट बन्द कर, अन्दर का पट खोल ॥

(68)
छीर रूप सतनाम है, नीर रूप व्यवहार । 
हंस रूप कोई साधु है, सत का छाननहार ॥

(69)
ज्यों तिल मांही तेल है, ज्यों चकमक में आग । 
तेरा सांई तुझमें, बस जाग सके तो जाग ॥ 

(70)
जा करण जग ढ़ूँढ़िया, सो तो घट ही मांहि । 
परदा दिया भरम का, ताते सूझे नाहिं ॥ 70 ॥